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कंकाल-अध्याय -३३

विजय ने हँसते हुए कहा, 'मैं चित्रकला से बड़ा प्रेम रखता हूँ। मैंने बहुत से चित्र बनाये भी हैं। और महाशय, यदि आप क्षमा करें, तो मैं यहाँ तक कह सकता हूँ कि इनमें से कितने सुन्दर चित्र, जिन्हें आप प्राचीन और बहुमूल्य कहते हैं, वे असली नहीं हैं।' 'बाथम को कुछ क्रोध और आश्चर्य हुआ। पूछा, 'आप इसका प्रमाण दे सकते हैं?' 'प्रमाण नहीं, मैं एक चित्र की प्रतिलिपि कर दूँगा। आप देखते नहीं, इन चित्रों के रंग ही कह रहे हैं कि वे आजकल के हैं-प्राचीन समय में वे बनते ही कहाँ थे, और सोने की नवीनता कैसी बोल रही है। देखिये न!' इतना कहकर एक चित्र बाथम के हाथ में उठाकर दिया। बाथम ने ध्यान से देखकर धीरे-धीरे टेबुल पर रख दिया और फिर हँसते हुए विजय के दोनों हाथ पकड़कर हाथ हिला दिया और कहा, 'आप सच कहते हैं। इस प्रकार से मैं स्वयं ठगा गया और दूसरे को भी ठगता हूँ। क्या कृपा करके आप कुछ दिन और मेरे अतिथि होंगे आप जितने दिन मथुरा में रहें। मेरे ही यहाँ रहें-यह मेरी हार्दिक प्रार्थना है। आपके मित्र को कोई भी असुविधा न होगी। सरला हिन्दुस्तानी रीति से आपके लिए सब प्रबन्ध करेगी।' लतिका आश्चर्य में थी और घण्टी प्रसन्न हो रही थी। उसने संकेत किया। विजय मन में विचारने लगा-क्या उत्तर दूँ, फिर सहसा उसे स्मरण हुआ कि मथुरा में एक निस्सहाय और कंगाल मनुष्य है। जब माता ने छोड़ दिया है, तब उसे कुछ करके ही जीवन बिताना होगा। यदि यह काम कर सका, तो...वह झटपट बोल उठा, 'आप जैसे सज्जन के साथ रहने में मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी, परन्तु मेरा थोड़ा-सा सामान है, उसे ले आना होगा।' 'धन्यवाद! आपके लिए तो मेरा यही छोटा-सा कमरा आफिस का होगा और आपकी मित्र मेरी स्त्री के साथ रहेगी।' बीच में ही सरला ने कहा, 'यदि मेरी कोठरी में कष्ट न हो, तो वहीं रह लेंगी।' घण्टी मुस्कराई। विजय ने कहा, 'हाँ ठीक ही तो होगा।' सहसा इस आश्रय के मिल जाने से उन दोनों को विचार करने का अवसर नहीं मिला। बाथम ने कहा, 'नहीं-नहीं, इसमें मैं अपना अपमान समझूँगा।' घण्टी हँसने लगी। बाथम लज्जित हो गया; परन्तु लतिका ने धीरे से बाथम को समझा दिया कि घण्टी को सरला के साथ रहने में विशेष सुविधा होगी। विजय और घण्टी का अब वहीं रहना निश्चित हो गया। बाथम के यहाँ रहते विजय को महीनों बीत गये। उसमे काम करने की स्फूर्ति और परिश्रम ही उत्कण्ठा बढ़ गयी है। चित्र लिए वह दिन भर तूलिका चलाया करता है। घंटों बीतने पर वह एक बार सिर उठाकर खिड़की से मौलसिरी वृक्ष की हरियाली देख लेता। वह नादिरशाह का एक चित्र अंकित कर रहा था, जिसमें नादिरशाह हाथी पर बैठकर उसकी लगाम माँग रहा था। मुगल दरबार के चापलूस चित्रकार ने यद्यपि उसे मूर्ख बनाने के लिए ही यह चित्र बनाया था, परन्तु इस साहसी आक्रमणकारी के मुख से भय नहीं, प्रत्युत पराधीन सवारी पर चढ़ने की एक शंका ही प्रकट हो रही है। चित्रकार ने उसे भयभीत चित्रित करने का साहस नहीं हुआ। संभवतः उस आँधी के चले जाने के बाद मुहम्मदशाह उस चित्र को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ होगा। प्रतिलिपि ठीक-ठीक हो रही थी। बाथम उस चित्र को देखकर बहुत प्रसन्न हो रहा था। विजय की कला-कुशलता में उसका पूरा विश्वास हो चला था-वैसे ही पुराने रंग-मसाले, वैसी ही अंकन-शैली थी।' कोई भी उसे देखकर यह नहीं कह सकता था कि यह प्राचीन दिल्ली कलम का चित्र नहीं है। आज चित्र पूरा हुआ है। अभी वह तूलिका हाथ से रख ही रहा था कि दूर पर घण्टी दिखाई दी। उसे जैसे उत्तेजना की एक घूँट मिली, थकावट मिट गयी। उसने तर आँखों से घण्टी का अल्हड़ यौवन देखा। वह इतना अपने काम में लवलीन था कि उसे घण्टी का परिचय इन दिनों बहुत साधारण हो गया था। आज उसकी दृष्टि में नवीनता थी। उसने उल्लास से पुकारा, 'घण्टी!' घण्टी की उदासी पलभर में चली गयी। वह एक गुलाब का फूल तोड़ती हुई उस खिड़की के पास आ पहुँची। विजय ने कहा, 'मेरा चित्र पूरा हो गया।' 'ओह! मैं तो घबरा गयी थी कि चित्र कब तक बनेगा। ऐसा भी कोई काम करता है। न न विजय बाबू, अब आप दूसरा चित्र न बनाना-मुझे यहाँ लाकर अच्छे बन्दीगृह में रख दिया! कभी खोज तो लेते, एक-दो बात भी तो पूछ लेते!' घण्टी ने उलाहनों की झड़ी लगा दी। विजय ने अपनी भूल का अनुभव किया। यह निश्चित नहीं है कि सौन्दर्य हमें सब समय आकृष्ट कर ले। आज विजय ने एक क्षण के लिए आँखें खोलकर घण्टी को देखा-उस बालिका में कुतूहल छलक रहा है। सौन्दर्य का उन्माद है। आकर्षण है! विजय ने कहा, 'तुम्हें बड़ा कष्ट हुआ, घण्टी!' घण्टी ने कहा, 'आशा है, अब कष्ट न दोगे!' पीछे से बाथम ने प्रवेश करते हुए कहा, 'विजय बाबू, बहुत सुन्दर 'मॉडल' है। देखिये, यदि आप नादिरशाह का चित्र पूरा कर चुके हो तो एक मौलिक चित्र बनाइये।'

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